मंगलवार, 3 दिसंबर 2013

दोहरी ज़ुबान नहीं आती .……


लाख कोशिश करो, मुस्कान नहीं आती
चली जाए जिस्म से, फिर जान नहीं आती
ज़रा सी बात में, दिल निकाल कर रख दिया
सच, मुझे इंसान की, पहचान नहीं आती.……

बहेलिये मुझे मार, मगर उसे बक्श दे
परिंदा छोटा है, अभी उड़ान नहीं आती .……

तलवे चाट सकते तो, आगे बढ़ गए होते
कमी ये है, हमें दोहरी ज़ुबान नहीं आती .……

ज़िंदा का लहू, मुर्दे का कफ़न तक खा गयी
ये सियासी हवस, कभी लगाम नहीं आती.……



        कवि प्रभात "परवाना"
 वेबसाईट का पता:- www.prabhatparwana.com




सोमवार, 4 नवंबर 2013

हम सरकार बदल देंगे........


तेल और तेल की धार, बदल देंगे,
ठान लिया तो संसार, बदल देंगे,
लूट, चोरी, सीनाजोरी बहुत हो चुकी अब तलक
वक़्त आ गया है, हम सरकार बदल देंगे ..........

शबनम को, आग लिखेंगे
इश्क़ को, इंकलाब लिख्नेगे
दिल में बैठा फनकार बदल देंगे
लूट चोरी , सीनाजोरी बहुत हो चुकी अब तलक
वक़्त आ गया है, हम सरकार बदल देंगे ..........


        कवि प्रभात "परवाना"
 वेबसाईट का पता:- www.prabhatparwana.com


सोमवार, 23 सितंबर 2013

भूल जाता है .....


जन्नत-ओं-जहानुम्म में अंतर, भूल जाता है,
नशे में इंसा, पीर पैगंबर भूल जाता है.…

बुलंदियों पर चढ़ते ही, कतरा आजकल,
मीलो गहरा है समंदर, भूल जाता है.…

ज़रा वाहवाही, क्या मिली ज़माने से,
मदारी के हाथो में है बन्दर, भूल जाता है.…

उम्र भर समेटता है, दौलत बेवजह
खाली हाथ गया था सिकंदर, भूल जाता है.…


        कवि प्रभात "परवाना"
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गुरुवार, 12 सितंबर 2013

अश्क जो माँ बाप की आँखों में गए ...


बारिश में जैसे जलता दीया ऐसे  जला  हूँ,
हर वक़्त, हर हालात, कसौटी पे खरा हूँ,
ये आंधियाँ रोकेंगी क्या अब मेरा रास्ता 
बुजुर्गों की दुआओ को घर से लेके चला हूँ,

मिट्टी है कि तुम, पूरी दुनिया में छा गए,
तो क्या हुआ जो, हर किसी के दिल को भा गए 
धर्म, पुन्य, तीर्थ सारे व्यर्थ हो गए 
अश्क जो माँ बाप की,आँखों में गए 

        कवि प्रभात "परवाना"
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बुधवार, 28 अगस्त 2013

पूजा जिस जिस को मैंने......


पूजा जिस जिस को मैंने, परवरदिगार की तरह,
हर उस शख्स ने मुझे देखा, गुनेहगार की तरह 
दौलत भी क्या शय है, तब मालूम हुआ मुझको
जब अदालत गवाह सब बिक गए, अखबार की तरह......

रोज़ नए वादे करना, और रोज़ मुकर जाना
तुम भी पेश आ रहे हो, सरकार की तरह......

हर बार तुमसे उम्मीद, लगाता रहा ये दिल,
और तुम तोड़ती रही उम्मीद, हर बार की तरह......

तेरे ग़म की स्याही से, जब जब कुछ लिखा हमने
हर नज़र में आ गए हम, इश्तेहार की तरह .......

गुल-ओ-गुलशन से भर दिया, दामन मेरा एक पल
और फिर चले गए ठुकरा कर, किसी बहार की तरह ......



        कवि प्रभात "परवाना"
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मंगलवार, 20 अगस्त 2013

कृष्ण तुम्हे अब आना होगा......


कृष्ण तुम्हे अब आना होगा, चक्र सुदर्शन लाना होगा …

कृष्ण तुम्हे अब आना होगा,कृष्ण तुम्हे अब आना होगा ......

त्राहि त्राहि सभी दिशाए
हमें बचाओ ,सब चिल्लाये
जल्लादों की भरमार पड़ी
गौ कटने को तैयार खड़ी .........

मीठी धुन की बंसी तज कर, तुमको शस्त्र उठाना होगा
कृष्ण तुम्हे अब आना होगा, चक्र सुदर्शन लाना होगा

कंसो सा आचार हो गया
पशुओ सा व्यवहार हो गया
देखो मानव नंगा होकर
बिकने को तैयार हो गया 
 .........

भगवन तुमको रन में आकर, गीता ज्ञान सुनाना होगा
कृष्ण तुम्हे अब आना होगा, चक्र सुदर्शन लाना होगा 

देखे औलादों के खेले,
मात-पिता को घर से ठेले
गुरुजन का सम्मान नहीं है,
भगवन की पहचान नहीं है
 .........

मोहन तुमको सौं जमुना की,सब पटरी पर लाना होगा
कृष्ण तुम्हे अब आना होगा, चक्र सुदर्शन लाना होगा


        कवि प्रभात "परवाना"
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सोमवार, 8 जुलाई 2013

एहसान लेना गवारा नहीं लगता.....


बच्चो के भूखे पेट को, पहचान लेता है,
पिता एक रोटी हिस्सों में, बाँट देता है,
माँ बीमार, चून ख़तम, लकडियाँ गीली,
आज फिर नहीं जलूँगा, चूल्हा भांप लेता है .....


एहसान लेना ज़मीर को, गवारा नहीं लगता
मुफलिस एक चादर में, सर्द राते काट लेता है .....

चुल्लू भर पानी में, वो शख्स, डूब मर जाए,
अपने काम की खातिर, जो तलवे चाट लेता है .....

बुरे वक़्त से कहाँ तक, बच सकोगे आप,
आदमी ऊंट पर बैठा हो, कुत्ता काट लेता है .....



        कवि प्रभात "परवाना"
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राजस्थान के मदर टेरेसा कालेज में कार्यक्रम....


मित्रो कुछ समय पहले राजस्थान के मदर टेरेसा कालेज में एक कार्यक्रम के आयोजन पर प्रस्तुति करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ ,
कार्यक्रम पूरी तरह सफल रहा , वहाँ के बच्चो ने कार्यक्रम को सफल बनाने में पूरा साथ दिया,
बहुत से मित्रो ने कार्यक्रम की विडियो देखने की इच्छा जाहिर की थी ,
साथियो पूरी विडियो तो नहीं मिल पायी परन्तु काव्य पाठ करते हुए एक अंश जरूर मिला है,

आप सभी का प्यार बना रहे तो जल्द ही आपके शहर में भी एक कार्यक्रम का आयोजन होगा,
अगर आप किसी भी प्रकार का सुझाव या प्रतिक्रिया देना चाहते है तो बेहिचक
theprabhatparwana@gmail.com
पर मेल करे,

और हाँ विडिओ देखना ना भूले : http://www.youtube.com/watch?v=FyVSu_cZmbU





        कवि प्रभात "परवाना"
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मंगलवार, 2 जुलाई 2013

श्यामलाल कॉलेज में हास्य कार्यक्रम ....


मित्रो आपके स्नेह और प्यार को शब्दों में बाँध पाना बहुत मुश्किल है ,
इस समाज से उम्मीद से ज्यादा प्यार मिला है , सभी का दिल से आभार ......
अभी कुछ दिन पहले दिल्ली विश्वविद्यालय में एक कार्यक्रम का आयोजन हुआ,

आयोजन श्यामलाल कॉलेज में हुआ , कार्यक्रम इतना अच्छा रहा कि आने वाले कार्यक्रमों का निमंत्रण पहले ही मिल गया,
सभी श्रोताओं ने भरपूर सहयोग किया, हँसते हँसाते कब समय बीत गया कुछ पता ही नहीं चला ,
अभी कुछ रोज़ पहले ही तो घर से निकले थे खाली हाथ, बस अपना जज्बा और माँ पिता, ईश्वर की दुआए साथ थी।
ये आप लोगो का प्यार ही है जिसने प्रभात को प्रभात "परवाना" तक का सफ़र तय करने की हिम्मत दी,

कार्यक्रम की विडिओ लिंक देखने के लिए कई मित्रो के मेल आये, लिंक यू -ट्यूब पर अपलोड कर दी गयी है
आशा है आप सभी को पसंद आएगी




        कवि प्रभात "परवाना"
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सोमवार, 1 जुलाई 2013

आईने काले हो गए


सच्चाई के आईने, काले हो गए,
बुझदिलो के घर में, उजाले हो गए,
झूठ बाज़ार में, बेख़ौफ़ बिकता रहा,
मैंने सच कहा तो, जान के लाले हो गए.....

लहू बेच बेच कर, जिसने, औलादे पाली,
भूखा सो गया, जब बच्चे कमाने वाले हो गए
.....

लहजा मीठा, मिजाज़ नरम, आँखों में शरम,
सब बदल गया, जब वो शहर वाले हो गए
.....

अपनी कमाई से, एक झोपड़ी ना बना सके,
वो सियासत में आये, तो महल वाले हो गए
.....


        कवि प्रभात "परवाना"
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मंगलवार, 4 जून 2013

सहमी-सहमी....


हैवान बन गया है, इंसान इस कदर
इंसानियत नज़र आती है, सहमी-सहमी,

सन्नाटो से पूछिए, उस रात का मंजर,
हर चीख नज़र आती है, सहमी-सहमी,

निकल पड़े है लोग, बेख़ौफ़ से बनकर
पर भीड़ नज़र आती है, सहमी-सहमी,

गवाहों की आँख में, आहिस्ते से देखिये
हर नजर नज़र आती है, सहमी-सहमी,

सजदो पे बंदिशे, मंदिरों में ताले,
अब अजान नज़र आती है, सहमी-सहमी,

महफूज़ नहीं वो, जो घर से निकल गया,
ये दहलीज़ नज़र आती है, सहमी-सहमी


        कवि प्रभात "परवाना"
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शुक्रवार, 17 मई 2013

अपनी अलग पहचान रखते हैं.....


दिल में ग़म, लबो पे मुस्कान रखते हैं,
भीड़ में अपनी ,अलग पहचान रखते हैं,

फकीरों के ठाठ, हमने अपना लिए 
पैरो में ज़मीं, सर पर आसमां  रखते है .....

हमारी मुफलिसी खुद्दारी, मार नहीं सकती,
उन्हें बता दो, शौक-ए गुलाम रखते है .....

नए शहर के नए उसूल, समझ नहीं आते,
खामोश रहते हैं, काम से काम रखते हैं.....

शहर के नामचीन भी, अजीब होते हैं
दीन धर्म ईमान, सबके दाम रखते है.....

मुट्ठी भर राख में, सिमटना है एक दिन,
फिर क्यों लोग इतना गुमान रखते है ?.....

इस चका-चौंध में, कहीं भटक ना जायें
इसलिए हम खुदा से, दुआ-सलाम रखते हैं.....

ये गाँव नहीं शहर है, संभलिये, साहब
यहाँ बगल में छुरी, मुहँ में राम रखते हैं .....




        कवि प्रभात "परवाना"
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मंगलवार, 14 मई 2013

मैकदा बचा लिया ....


आप ही कीजिये, मंदिर मस्जिद में सजदा
हमने मैकदे के पास ही, घर बना लिया .....

औरो से कुछ हटकर, उसूल है हमारा,
जहा मैकदा देखा, वही सर झुका लिया .....


मरीज-ए-इश्क- ने, क्या खूब मर्ज निकाला 
हुस्न को छोड़कर, मय से दिल लगा लिया .....

अंगूर की जवानी से, कुछ यू सजा मैकदा
शेख जी ने मैकदे को, जन्नत बता दिया .....

दंगो की आग में, जल गया शहर सारा
कुछ रिंदो ने मिलकर ,मैकदा बचा लिया .....



        कवि प्रभात "परवाना"
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शनिवार, 4 मई 2013

मुझे मैखाने की आदत नहीं

हर साक़ी, हर पैमाने को है,
ये ख़बर, ज़माने को है,
मुझे मैखाने की आदत नहीं,
मेरी आदत, मैख़ाने को है .....

शेख जी आज बिन पिए ही चले गए,
लगता है कोई तूफां, आने को है .....

बस्ती जलाकर जिसने महल बनाया है 
पहला खतरा उसके आशियाने को है .....


        कवि प्रभात "परवाना"
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गुरुवार, 11 अप्रैल 2013

आईने से नज़रे मिला लीजिये .......


आँखों में नमी, दिल परेशां क्यों है,
मैं सब बता दूंगा, दो घूँट पिला दीजिये.......

और नशा शराब का यकीनन बढेगा,
इसमें अश्क मेरे, मिला दीजिये.......

गलती इंसान से नहीं तो क्या खुद से होगी,
क्यू खामखा, किसी से गिला कीजिये.......

खुद से मोहब्बत, आपको हो जाएगी
आईने से नज़रे, मिला लीजिये .......



        कवि प्रभात "परवाना"
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रविवार, 31 मार्च 2013

माँ ....


रिश्तेदारी जब, गर्त में ले जाती है
तब कही जाकर, माँ याद आती है,
दौर-ए-मुसीबत का मर्ज, खूब जानती है,
माँ बाज़ार जाकर, जेवर बेच आती है.......

हालातो से लड़ने का, हुनर देखिये
माँ अँधेरे में, दिया ढूंढ लाती है.......



        कवि प्रभात "परवाना"
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शनिवार, 30 मार्च 2013

मीर और ग़ालिब का ज़माना नहीं रहा........


सच्चे प्यार का अब, फ़साना नहीं रहा,
शमा में जल गया, परवाना नहीं रहा
शायरी रूह तक पहुचे, तो कैसे पहुचे
अब मीर और ग़ालिब का, ज़माना नहीं रहा........

सियासत और हवस ने, पूरा शहर खोद डाला
अब ज़मीं के नीचे छिपा हुआ, खज़ाना नहीं रहा
........

सच और नेकी की राह में, ये मोड़ भी आया
खाने को रोटी और रहने का, ठिकाना नहीं रहा
........

इश्क उनसे हुआ तो, हम जीते जी मर गए,
अब मौत के आने का, बहाना नही रहा
........

        कवि प्रभात "परवाना"
 वेबसाईट का पता:- www.prabhatparwana.com


शनिवार, 16 फ़रवरी 2013

थोड़ा इन्तजार कीजिये .....


हमसे कितना दूर जाएंगे,
हमें पता है, वो लौट आएँगे, थोड़ा इन्तजार कीजिये .....

ये हया का पर्दा है, धीरे धीरे हटेगा,
वो नज़र मिलाएंगे ,थोड़ा इन्तजार कीजिये .....

मैं गिरू, तो मेरा हाथ थाम लेना,
तुम्हे मोहब्बत के वादे याद आएँगे, थोड़ा इन्तजार कीजिये .....

कई रोज़ बाद मिला, तो आँख भर आई ,
हम भी मुस्कुराएंगे , थोड़ा इन्तजार कीजिये .....

उन्हें देखकर हमने बहुत कुछ लिख डाला ,
कभी और सुनाएंगे , थोड़ा इन्तजार कीजिये .....




        कवि प्रभात "परवाना"
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शनिवार, 9 फ़रवरी 2013

प्रेम चतुर्दश स्पेशल ......


आज का प्रेम चतुर्दश त्यौहार (14- फरवरी)


प्रेमिका:-
तुम तोड़ सितारों को, मेरी मांग सजा दो,
अम्बर में लगे चाँद को, धरती पे ला दो,
ये चाँद सितारे, सजन गर दे नहीं पाओ
फूलो पे लदी तितलियों को, घर में तो ला दो 

फूलो पे लदी तितलियों को, घर में तो ला दो 


प्रेमी:-
मैं तोड़ सितारों को, तेरी मांग क्यों भरू?
अम्बर में लगे चाँद को, बर्बाद क्यों करू?
जब तू नहीं मेरी कहो क्यू तेरे प्यार में,
मासूम तितलियों का भला, खून क्यों करू?
मासूम तितलियों का भला, खून क्यों करू?


        कवि प्रभात "परवाना"
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शुक्रवार, 1 फ़रवरी 2013

काश! काश! काश!......

जिस्म तपता रहा रात भर, हक़ीकत की आग से,
और करवटे,
मानो जगह बदल-बदल के
मुझे पूरी तरह सेंकना चाहती थी,

ये जिस्मानी तपन ना थी,
ना ही तन्हाई की तपन,
ये तपिश थी मेरी मजबूरी की, की काश मैं उसे बचा पाता.........


वो तितली जो उड़ना चाहती थी, अपने चटकीले आकर्षक परो से, रौंद दी गयी,
समाज के वहशी के हाथो.....
जो सिर्फ़ उसका कौमार्य पाना चाहता था,

फिर क्या था , एक बार उसके कठोर हाथ तितली के परो को लगे, और
और कठोर हो गये.

तितली का कौमार्य मिट चुका था और वो वहशी खुश था अपनी जीत पर,

तितली के पर उस वहशी के हाथो मे रह गये, और तितली ज़मीन पर असहाय ... पर
वो खुश था जो चाहिए था , मिल गया.....

अब तितली ज़िंदा थी, पुरानी यादो के सहारे उस पराग के सहारे,
जो उसने अभी-अभी पिया था.... तितली को लगा वो उठा लगे उसे, और घर ले चलेगा ,
पर वो चला गया उन तितलियो के पास, जो घर मे क़ैद थी, और सुंदर, और सुंदर......


पर मैं कहा था?????
मैं? मुझे तो बहुत देर से पता चला जब सब ख़त्म हो चुका था,
और मैं कर भी क्या सकता था निरीह बालक की तरह पत्ते से पलटता रहा , उस
तितली को, जो बिना परो के तड़प रही थी .....

अब उस तितली मे सिर्फ़ जिस्म था , जान तो वो ले जा चुका था
पर वो अभी मरी नही थी , ज़िंदा थी मगर लाश की तरह ..........

मैं एक निर्बोध बालक सा रोता रहा, कभी तितली पर, कभी वहशी पर, कभी हालात पर.....

हां वो आता है कभी कभी मुड़कर, उन परो को लेकर जो उसने कभी तोड़े थे, और
हर बार तितली सोचती,
वो उसे लेने आया है,

और इस बहाने कुरेद जाता वो पुराने जख्म, गुबार, तन्हाइया, खामोशिया और
बद-हवासियाँ.........

मैं उस बे-पर तितली को चाहने लगा, उसे ज़िंदा नही, जिंदगी देना चाहता था,

धीरे धीरे उस तितली को मुझसे प्यार हो गया, अब वो कटे पंख से फड़फड़ाने
लगी.... मगर वो डरती थी उड़ने से,
कही वो वहशी फिर.................-.........


यही ज़िंदगी है,
इंसान किस हद तक गिर जाता है, वादा पाने से दफ़नाने का,
और साथ बस पाने से पाने भर तक का.....

अब ज़िंदगी मे हसरते ना रही. बस काश! बचा था ,
काश! खुदा एक मौका और देता, ज़िंदगी के पन्ने पलटने का, एक मौका, ज़िंदगी
दुबारा जीने का

काश! एक मौका, उस भूल को सुधारने का, जो बद-हवासीयो मे होती चली गयी...........

काश! काश! काश!


        कवि प्रभात "परवाना"
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बुधवार, 23 जनवरी 2013

बहाना बता दो...


परियो  सा हुस्न, जागीर में नहीं मिलता 
कहा से पाया है, ये खजाना बता दो ....

ये कमाल के हुनर, ज़रा हम भी सीख ले,
इश्क की नज़र से, दिल जलाना बता दो.....

धरती शितीज या आसमां , हम आ जाएंगे
तुम जहा कही भी हो, ठिकाना बता दो .....

कुछ काम पड़  गया, या मुश्किल में हूँ 
घर क्या कह के निकलू, बहाना बता दो।।।।


        कवि प्रभात "परवाना"
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मंगलवार, 1 जनवरी 2013

मान के चलिए ......


 वो बुरा करे, करने दीजिये, 
खुदा ही सजा देगा,  मान के चलिए .....

ख्वाब तोड़िए , ज़मीं पर उतरिये साहब ,
दोस्त ही दगा देगा, मान के चलिए ......

कौन है जो गुल में, खंजर रखता है,
वक़्त सब बता देगा, मान के चलिए ......

तेरे बलिदान उसे, बुलंदी पर ले गए बेशक,
वो सब भुला देगा, मान के चलिए ......

माँ बाप को ठोकरे खिला  रहा है जो अब तलक 
तुझे क्या सिला देगा, मान के चलिए ......

        कवि प्रभात "परवाना"
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