गुरुवार, 12 जनवरी 2017

गंगा किनारे वाले की डायरी : जादूगर का खेल (भाग -6)


याद हैं, उस शाम हम गंगा बाज़ार के पास लगने वाले मेले के लिए घर से निकले तो चौपाल के पास जादूगर का खेल देखने के लिए रुक गए थे।  

शायद तुम्हे याद होगा की जादूगर ने तुम्हारे हाथ में बंधी घड़ी को गायब करके मेरी जेब से निकाला था, फिर मेरी जेब का रुमाल गायब करके अपने जादू से तुम्हारे दुप्पटे में उलझा दिया था।

जादूगर का खेल देखते देखते कब शाम से रात हो गयी हमें पता भी ना चला| घर में बताने के लिए दोनों ने मेले की खूब सारी झूठी कहानियां रट ली थी।  घर पहुँचने की जल्दी में तुम्हारी घड़ी मेरे पास ही रह गयी थी।  उस घड़ी को मैंने आज तक संभाल कर रखा हैं

मैं कई बरसो बाद उसी जगह से गुजरा, लेकिन अब वहा कोई चौपाल नहीं थी।  वक़्त के जादूगर ने चौपाल की जगह पक्के मकान और गाड़ियों को जमा कर दिया था | मैंने गाँव के लोगो से उस जादूगर के बारे में पूछा था पता चला कि अब वो जादूगर यहाँ नहीं आता।

उस शाम की तरह इस शाम भी मैं वापस घर की तरफ चलने लगा, पर इस शाम ना मेरे हाथो में तुम्हारा हाथ था, ना तुम और ना तुम्हारा वक़्त
काश! वो जादूगर उस रात तुम्हारे हाथ में बंधी घड़ी के साथ तुम्हारा वक़्त भी मुझे दे देता।

आज वो जादूगर मिल जाए तो मैं उससे कहूँ कि वो घड़ी हमारे रिश्ते की तरह रुक गयी हैं उसे वापस तुम तक पहुंच दे।

उस पूरी रात मैं बार-बार अपनी जेबें टटोलता रहा कि शायद कोई जादूगरआज फिर से मेरी जेब में रखे रुमाल जैसे खत तुम्हारे दुप्पटे में उलझा आये।  

        कवि प्रभात "परवाना"
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सोमवार, 7 नवंबर 2016

गंगा किनारे वाले की डायरी : ज़रा ध्यान से समेटना...(भाग -5)


ताजमहल के सामने खिंचवाई हुई ये तस्वीर अकेले नहीं टूटी हैं, इन कांच के टुकड़ो के साथ कुछ पल भी बिखर गए हैं
ज़रा ध्यान से समेटना....

साथ बिताये पल, दूरी वाले पल, रूठने वाले पल, मनाने वाले पल, तकिये की लड़ाई वाले पल, बचकानी शर्तो वाले पल, कमरे की बत्ती बंद करने पर होने वाली मीठी बहस के पल,
सब बिखर गए हैं,
ज़रा ध्यान से समेटना....

एक पल छिटक कर दूर कोने में जा पहुंचा है
ये वो पल हैं जो गंगा किनारे वाले मंदिर की सीढिया चढ़ते हुए थक गया था,
शायद वो कुछ देर सुस्ताना चाहता हैं
सुस्ताने दो, फिर ज़रा ध्यान से समेटना....

वो पल जो फर्श के बीचो बीच धाक जमाये बैठा हैं
वो उस बगावत का पल हैं जो हमने अपने प्यार के लिए घरवालो से की थी
थोड़ा भारी हैं, आओ इस पल को दोनों समेटते हैं,
टूट कर और ना बिखर जाए, जरा ध्यान से समेटना ...

याद हैं मैंने एक बार जामुन का रंग तुम्हारे सफ़ेद कपड़ो पर मल दिया था, और फिर कई दिन तक इस बात पर लड़ाई रही थी, वो पल छिटक कर आँगन में चला गया हैं
देखो आज फिर कही तुम्हारे कपड़ो पर जामुनी रंग ना लग जाए
ज़रा ध्यान से समेटना....

ये पल जो उचट कर गोदी में आ गिरा हैं ये वो पल हैं जो करवाचौथ पर पेट दर्द के बहाने भूखा प्यासा रहा था, इसे कुछ खिला देना
फिर, जरा ध्यान से समेटना ....

तुम्हारे पैरो के पास जो दो पल बिखरे हैं ये वो पल हैं जब मैं तुम्हारे लिए पायल और बिछिया लाया था
इन दो पलो को पहन लो शायद इस बहाने मैं तुम्हारे साथ रह सकू...
उम्मीदों के अखबार पर एहसासों के बाकी पल समेट लो और फेंक आओ किसी ऐसी जगह जहाँ ये पल फिर किसी के दिल में ना चुभे...
पर हाँ, जरा ध्यान से समेटना ....

        कवि प्रभात "परवाना"
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बुधवार, 28 सितंबर 2016

गंगा किनारे वाले की डायरी : यादों की किश्त (भाग -4)


सुना है बड़े शहरों के लोग अपनी उम्र किश्ते भरने में ही गुजार देते हैं

एक कर्ज मुझ पर भी हैं, तुम्हारी मोहब्बत का...
वही कर्ज जो हमने, अंजुरी भर गंगाजल को साक्षी रख के लिया था....

वक़्त बे वक़्त दस्तक दे देते हैं ख्वाब, मैं भी पल पल तुम्हारी यादों की किश्त भरता हूँ

अक्सर तकादा करने आ जाती हैं हिचकियाँ, अश्क़ो का ब्याज दर बहुत महँगा पड़ रहा हैं
आँखे मुरझा गयी हैं रोते रोते, कुछ ब्याज कम कर लो, कुछ मूल मैं चुका देता हूँ

पुराना कर्ज हैं, चुकते चुकते चुकेगा
किसी दिन आ जाओ, मिलकर हिसाब करते हैं,

मेरे सपने तुम्हारे दिल की तिजोरी में गिरवी रखे हैं, याद से लेते आना.....

हाँ, एक बात बताते जाना, क्या तुम भी किश्ते भरते हो???

        कवि प्रभात "परवाना"
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शुक्रवार, 1 जुलाई 2016

खुदा पत्थर में रहे तो अच्छा है.....


मेरा सर तेरे दर पर रहे, तो अच्छा है
कुछ दर्द मुक्क़दर में, रहे तो अच्छा हैं
तेरे किस्से इसलिए जुबा पर, नहीं लाया
घर की बात घर में रहे, तो अच्छा हैं...

अश्क़ो की हिफाज़त, आँखों में है साहब
गंगा बस समंदर में रहे, तो अच्छा है
...

बुत-तराश को रोको, इसे शक्ल ना दे
ये खुदा पत्थर में रहे, तो अच्छा है
...

गाँव में राम ओ रहमा, साथ रहते हैं
शहरी लोग शहर में रहे, तो अच्छा है
...

 कवि प्रभात "परवाना"

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गुरुवार, 23 जून 2016

काफिर अब खुदा हो गया.....


इश्क़ और मोहब्बत में, ये क्या हो गया
जो दुनिया था वो, दुनिया जैसा हो गया...

मासूमियत से खुद आके, पूछने लगे मुझसे
वो कौन था कैसा था, और कैसा हो गया...

झूठ पर झूठ बोला तो, शाबाशियाँ मिली
जरा सच कह दिया, तो तमाशा हो गया...

जरा मुट्ठी भर राख लेकर, दिखा दो उन्हें
जिन्हे बुलंदी पे पहुँच कर, नशा हो गया...

मौका परस्ती की इम्तहां, देखिए साहब
जो कल काफिर था, अब खुदा हो गया...


 कवि प्रभात "परवाना"

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सोमवार, 4 अप्रैल 2016

गंगा किनारे वाले की डायरी : सब ठीक है (भाग -3)


सुनो, तुम्हे याद होगा उस शाम जब मैं गंगा माँ के किनारे बैठ कर यादो का सागर खंगाल रहा था, तब तुमने अचानक पीछे से आकर मेरी आँखों पर अपने हाथ रख दिए थे।


इससे पहले कि मैं कुछ बोल या समझ पाता तुमने अपने हाथ खुद ही हाथ हटा लिए थे।
मेरी आँखों कि नमी अब तुम्हारे हाथो पर तैर रही थी।
मैं जान चुका था कि आज फिर से तुम मेरे सामने एक बार वही सवाल लेके खड़े होगे, आज फिर से तुम जानना चाहोगे कि गंगा किनारे मैं अश्क़ो का समंदर लिए क्या कर रहा था
और तुम ये भी जानते थे कि आज फिर से मेरा जवाब वही होगा "कुछ नहीं हुआ, सब ठीक है"

हर बार की तरह तुमने उसी रेशम के दुपट्टे से मेरे आंसू पोछे जिसे मैंने वाराणसी के गोलघर बाजार से लाके तुम्हे दिया था।
ढलती शाम में एक चाँद गंगा की लहरों पर अठखेलियां ले रहा था और एक चाँद मेरे सामने आँखों में शबनम और सवाल लिए खड़ा था।

आसपास लोगो की चहलकदमी बढ़ने लगी थी, कही अश्क़ो का सैलाब संयम का बाँध ना तोड़ दे इस डर से हम दोनों ने खुद को संभाला | ख़ामोशी बहुत से सवाल - जवाब कर चुकी थी
अब बस शब्दों की औपचारिकता के लिए तुमने पूछा "बताओ हुआ क्या है, क्यों उदास हो?"

और मेरा वही जवाब था, "कुछ नहीं हुआ, सब ठीक है"

        कवि प्रभात "परवाना"
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सोमवार, 28 दिसंबर 2015

गंगा किनारे वाले की डायरी : लकीरे (भाग -2)


गंगा किनारे वाले की डायरी : लकीरे (भाग -2)

याद है गंगा किनारे कई बार तुमने हाथ देखने के बहाने मेरा हाथ अपने हाथो में लिया था।
हाथ की आड़ी तिरछी रेखाओ से सफर करते आँखों के मोती साहिल पर आकर ठहर जाते।
उन आँखों में एक बादल का टुकड़ा था, जो बरसना चाहता था मगर हर बार तुम पलकों पर पहरा लगा देते।
शायद उस बादल में एक तिश्नगी थी, एक प्यास थी, जो तुम्हारे होठो के पनघट पर कुछ देर सुस्ताना चाहती थी

कभी समझ नहीं पाया की आखिर उन रेखाओ में क्या तलाशती हो तुम?
सवाल जैसी रेखाओ से जाने कौन कौनसे जवाब माँगती थी तुम?
मेरी हथेली पर टेढ़ी मेड़ी गलियो जैसी ये लकीरे क्या दे सकती थी तुम्हे?
ये लकीरे खुद अपना हासिल ढूढ़ते हुए, एक बुझे हुए छोर पर आकर खत्म हो जाती है

हिम्मत करके जिन हाथो को तुम पकड़ते थे, उसे हया के पहरेदार पल भर में अलग कर देते।
एक अल्हड़पन था तुम्हारे अंदर जैसे कबीर के दोहे, एक तन्मयता थी तुम्हारे अंदर जैसे मीरा के भजन हो, एक अपनापन था तुम्हारे अंदर जैसे रसखान के सवैये हो

गंगा माँ आज भी वहाँ से निकलती हैं वो भी अब पहले जैसी नहीं रही, वक़्त के आंधियो ने गंगा और इंसान दोनों को गहरे जख्म दे दिए है।
मैं आज भी वहाँ जाता हूँ पर, अब उस जगह कोई हाथ देखने वाला नही है, ना किसी की आँखों में प्यास है ना व्यवहार में अपनापन, और ना बोली में अल्हड़पन...

सब कुछ बदल गया है, अब सब कुछ बदल गया है..........


        कवि प्रभात "परवाना"
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बुधवार, 9 दिसंबर 2015

कब अच्छा दिन आएगा?....


भूखी अंतड़ियोँ को किस दिन, एक निवाला जाएगा
और चुनावी वादो का कब, कर्ज उतारा जाएगा

बच्चा बच्चा पूछ रहा है, कब अच्छा दिन आएगा?....

सबसे ऊँची कुर्सी पाकर, अंहकार में फूल गए?
राम का मंदिर बनवाऊंगा, वादा शायद भूल गए
गंगा तट पर दोहराई जो, सारी रस्मे याद करो
छप्पन इंची सीने वाली, सारी कसमे याद करो

और किसानो के घर में, कब तक अँधियारा छाएगा?
सरहद पर कब तक फौजी का, शीश उतारा जाएगा?

बच्चा बच्चा पूछ रहा है, कब अच्छा दिन आएगा?....
बच्चा बच्चा पूछ रहा है, कब अच्छा दिन आएगा?....

कब तक भारत माता यूँ ही, हाय हाय चिल्लाएगी?
डायन कहने वालो की कब, जीभ काट दी जाएगी?
बड़ी बड़ी ना दे पाओ तो, चींजे कुछ छोटी दे दो
बुलेट ट्रेन देने से पहले, भारत को रोटी दे दो

फुटपाथों पर कब तक बचपन, आसूं रोज़ बहाएगा
इंसा खूं को बेच बेच कर, कब तक खाना खाएगा

बच्चा बच्चा पूछ रहा है, कब अच्छा दिन आएगा?....
बच्चा बच्चा पूछ रहा है, कब अच्छा दिन आएगा?....


इटली वाला कुनबा कब, वापस इटली को जाएगा
10 जनपथ पर बोलो मोदी, कब भगवा लहराएगा
और कबाड़ी जीजा बोलो, कब सड़को पर आएगा
मोदी जी मत मारो कह कर, कब पप्पू चिलाएगा

कालेधन वाली चिट्ठी का, चिटठा कब खुल पाएगा
और पकड़ कर कॉलर कब, दाऊद को पीटा जाएगा

बच्चा बच्चा पूछ रहा है, कब अच्छा दिन आएगा?....
बच्चा बच्चा पूछ रहा है, कब अच्छा दिन आएगा?....


        कवि प्रभात "परवाना"
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सोमवार, 2 नवंबर 2015

हिम्मत अब नही है.....

समंदर तक जाने की, हिम्मत अब नहीं है,
आंसू देख पाने की, हिम्मत अब नही है.....

चंद रोज में पढ़ डाली है, ढेर किताबे,
तेरे खत पढ़ पाने की, हिम्मत अब नहीं है
.....

समझ सको तो मेरी, खामोशी को समझो,
लब से कुछ कह पाने की, हिम्मत अब नही है
.....

तेरे बिन पल पल, कैसे काटा है,
वो सब कुछ दोहराने की, हिम्मत अब नहीं है
.....

बरसो पहले टूटा रिश्ता, फिर जोडू,
जीते जी मर जाने की, हिम्मत अब नही है
.....

वो हाथ पकड़ कर दूर तलक, चलते जाना,
यादो में खो जाने की, हिम्मत अब नही है
.....

मार सको तो सीने पर, आकर मारो,
पीठ में खंजर खाने की, हिम्मत अब नही है
.....

समंदर तक जाने की, हिम्मत अब नही है
आंसू देख पाने की, हिम्मत अब नही है
.....

        कवि प्रभात "परवाना"
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गुरुवार, 8 अक्तूबर 2015

गंगा किनारे वाले की डायरी : लकीरे (भाग -1 ) पुराने पन्ने...

गंगा किनारे वाले की डायरी : लकीरे (भाग -1 ) पुराने पन्ने...


कल रात दराज में कुछ, पुराने सीलन भरे पन्ने मिले
पन्ने क्या थे, मेरा अतीत था....

एक पल रुक के सोचा उन्हें छूना, ठीक भी होगा या नहीं
कहीं ऐसा ना हो किसी पन्ने से तुम, मुस्कुराते नज़र आओ
या किसी पन्ने पर तुम्हारी, झूठी नाराजगी दबी हुई हो 
....

शायद किसी पन्ने पर उस किताब का नाम लिखा हो,
जिसकी अदला बदली के बहाने, हमारा रिश्ता परवान चढ़ा
....

याद है उन बच्चो के नाम जो हमने, शादी से पहले सोचे थे
सब इन्ही कागजो की किसी कतरन में लिखे होंगे 
....

कुछ और भी लिखा होगा इनमे, जिसे पढ़ने की हिम्मत अब नहीं है
इन्ही पन्नो में लिखी है वो कहानी जिसे, आगाज़ तो मिला पर अंजाम नहीं 
....

इन पन्नो में जो सीलन है, वो दरअसल मेरे और तुम्हारे आंसू हैं
जिन्हे हम गंगा किनारे, गंगा माँ को सौंप आये थे 
....

चलो आज और सोने देते हैं उन पन्नो को, अपने अतीत को, तुमको
हमारे आँसुओ को, और हर उस याद को जिसने हमें आज तक हम बना रखा है
....


        कवि प्रभात "परवाना"
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